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शिवनाथ नदी के बीचों-बीच पर्यटन की अनूठी जगह मदकू द्वीप दो धर्म और आस्था का संगम स्थल

अपना भाटापारा देखो दुनिया लेकिन हमारे भाटापारा के नजरिये से ............

परम प्रेम की परिणिति काम-क्रीडा को परिलक्षित करती छत्तीसगढ का खजुराहो भोरमदेव मंदिर।

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शिवनाथ नदी के बीचों-बीच पर्यटन की अनूठी जगह मदकू द्वीप दो धर्म और आस्था का संगम स्थल

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शिवरीनारायण का मंदिर माता शबरी का आश्रम छत्तीसगढ़-इतिहास के पन्नो में

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प्रेम का लाल प्रतीक लक्ष्मण मंदिर...........

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ताला की विलक्षण प्रतिमा-देवरानी जेठानी मंदिर

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बुधवार, 24 अगस्त 2022

ताला गांव, देवरानी जेठानी मंदिर ताला गांव बिलासपुर : छत्तीसगढ़ की सबसे प्राचीन मंदिर ताला गांव में स्थित है।

Devrani Jethani Mandir Amerikapa Bilaspur { देवरानी- जेठानी मंदिर अमेरिकापा - तालगांव बिलासपुर }


आज हम भारतीय शिल्पकला की चर्चा करते हैं. भारतीय शिल्प में मूर्ति निर्माण की परंपरा बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही है. कला इतिहासकारों इन प्रतिमाओं को उनके लक्षण एवं शैलियों के आधार पर विवेचनाएँ प्रस्तुत की हैं किन्तु कभी कभी ऐसी विलक्षण प्रतिमाएं मिल जाती हैं, जो पुरातत्व वेत्ताओं एवं कला इतिहासज्ञों के लिए समस्या बन जाती है. ऐसी ही एक प्रतिमा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के तला गांव में प्राप्त हुई है.


बलोदाबज़ार-भाटापारा जिले के समीपस्बिथ जिला बिलासपुर से ३० किलो मीटर दूर मनियारी नदी के किनारे अमेरी-कांपा नामक गांव के "ताला" नामक स्थान पर दो भग्न मंदिर हैं. जो देवरानी-जेठानी मंदिर के नाम से प्रसिद्द हैं.

जेठानी मंदिर अत्यंत ही ख़राब हालत में है, एक पत्थरों के टीले में बदल चूका है. जबकि देवरानी मंदिर अपेक्षाकृत बेहतर हालत में है.

ये दोनों मंदिर अपनी विशिष्ट कला के कारण देश-विदेश में प्रसिद्द हैं. समय समय पर यहाँ मलबे की सफाई होती रहती है.




यहाँ पर पहले मिटटी के बड़े-बड़े ढेर थे. फिर किसी ने इनकी खुदाई की तो इसमें से बड़े-बड़े पत्थरों पर खुदाई किये हुए खम्भे निकले.


उसके बाद पुरातत्व विभाग ने यहाँ पर खुदाई की और ये मंदिर निकले. भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी डॉ. के.के. चक्रवर्ती के मार्ग दर्शन में इस स्थान का मलबा सफाई का काम हुआ. जिससे 17 जनवरी 1988 को एक विलक्षण प्रतिमा प्रकाश में आई.

                           

  • यह विशाल प्रतिमा 9 फुट ऊँची एवं 5 टन वजनी तथा शिल्प कि दृष्टि से अद्भुत है.
  • इसमें शिल्पी ने प्रतिमा के शारीरिक विन्यास में पशु पक्षियों का अद्भुत संयोजन किया है. मूर्ति के सर पर पगड़ी के रूप में लपेटे हुए दो सांप है. नाक और आँखों की भौहों के स्थान पर छिपकिली जैसे प्राणी का अंकन किया गया है,
  • मूछें दो मछलियों से बनायीं हैं. जबकि ठोढ़ी का निर्माण केकड़े से किया गया है. कानों को मोर (मयूर) की आकृति से बानाया है. सर के पीछे दोनों तरफ सांप के फेन बनाये हैं. कन्धों को मगर के मुख जैसा बनाया है जिसमे से दोनों भुजाएं निकलती हुयी दिखाई देती हैं.
  • शरीर के विभिन्न अंगों में 7 मानव मुखाकृतियों का चित्रण मिलता है. वक्ष स्थल के दोनों ओर से दो छोटी मुखों का चित्रण किया गया है. पेट (उदर) का निर्माण एक बड़े मानव मुख से किया गया है.
  • तीनो मुख मूछ युक्त हैं. जांघों के सामने की ओर अंजलिबद्ध दो मुख तथा दोनों पार्श्वों में दो अन्य मुख अंकित है. दो सिंह मुख घुटनों में प्रदर्शित किये गए हैं.
  • उर्ध्वाकार लिंग के निर्माण के लिए मुंह निकाले कच्छप (कछुए) का प्रयोग हुआ है. घंटा की आकृति के अंडकोष पिछले पैरों से बने हैं.
  • सर्पों का प्रयोग पेट तथा कटिसूत्र (तागड़ी) के लिए किया गया हैं. हाथों के नाख़ून सर्प मुख जैसे हैं. बांयें पैर के पास एक सर्प का अंकन मिलता हैं.
इस प्रकार की प्रतिमा देश के किसी भी भाग में नहीं मिली हैं. अभी तक यह नहीं जाना जा सका हैं कि यह प्रतिमा किसकी हैं और इसका निर्माण किसने और क्यों किया?
यह प्रतिमा पुराविदों के लिए भी एक पहेली बन गई है। फ़िर भी इसे "रुद्र शिव" माना जा रहा है।


प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के शरभपुरीय राजावो के राजत्वकाल में मनियारी नदी के तट पर ताला नामक स्थल पर अमेरि काँपा गाव के समीप दो शिव मंदिर का निर्माण कराया गया था 


देवरानी मंदिर :- इस मंदिर में प्रस्तर निर्मित अर्ध भग्न देवरानी मंदिर ,शिव मंदिर है|जिसका मुख पूर्व दिशा कि ओर है | इस मंदिर के पीछे कि तरफ शिवनाथ कि सहायक नदी मनियारी प्रावाहित हो रही है | इस मंदिर का माप बहार कि ओरसे ७५ *३२ फिट है जिसका भू – विन्याश अनूठा है |इसमें गर्भगृह , अंतराल एवं खुली जगह युक्त संकरा मुखमंडप है |मंदिर में पहुच के लिए मंदिर द्वार कि चंद्रशिलायुक्त देहरी तक सीढ़िय निर्मित है |मुख मंडप में प्रवेश द्वार है |




मंदिर कि द्वारशाखाओ पर नदी देवियों का अंकन है | सिरदल में ललाट बिम्ब में गजलक्ष्मी का अकन है |इस मंदिर में उपलब्ध भित्तियों कि उचाई १० फिट है इसके शिखर अथवा छत आभाव है | इस मंदिर स्थली में हिन्दू मत के विभिन्न देवी – देवताओ ,व्यन्तर देवता पशु ,पौराणिक आकृतिया ,पुष्पांकन एवं विविध ज्यमितिक एवं अज्यमितिक प्रतिको के अंकलनयुक्त प्रतिमाये एवं वास्तुखंड प्राप्त हुवे है | उनमे रूद्रशिव के नाम से सम्भोधित कि जाने वाली एक प्रतिमा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है| या विशाल एकाश्मक द्विभुजी प्रतिमा समभगमद्रा में खड़ी हुई है तथा इसकी उचाई २.७० मीटर है| यह प्रतिमा शास्त्र के लक्षणों कि दृष्टी से विलक्षण प्रतिमा है| इसमें मानव अंग के रूप में अनेक पशु मानव अथवा देवमुख एवं सिह मुख बनाये गए है| इसके सिर का जटामुकुट(पगड़ी )जोड़ाशर्पो से निर्मित है| ऐसा प्रतीत होता है यहाँ के कलाकार को सर्प – आभूषण बहुत प्रिय था क्योकि प्रतिमा में रूद्रशिव का कांटे हात एवं उंगलियों को सर्प कि भांति आकर दिया गया है|



इसके अतिरिक्त प्रतिमा के उपरी भाग पर दोनों ओर एक – एक सर्पफन छत्र कंधो के ऊपर प्रदर्शित है|इसी तरह बाये पैर में लिपटे हुवे फणयुक्त सर्प का अंकन है| दुसरे जीव जन्तुवो में मोर से कान एव कुंडल ,आखो कि भोहे एव नाक छिपकली से मुख कि ठुड्डी केकड़ा स निर्मित है| तथा भुजाये मकरमुख से निकली है| सात मानव अथवा देवमुख शरीर के विभिन्न अंगो से निर्मित है| ऊपर बतलाये अनुसार अद्वितीय होने के कारण विद्वानों के बीच इस प्रतिमा कि सही पहचान को लेकर अभी भी विवाद बना हुवा है|



शिव के किसी भी ज्ञात स्वरुप के शास्त्रोक्त प्रतिमा लक्षण पूर्ण रूप से न मिलने के कारण इसे शिव के किसी स्वरुप विशेष कि प्रतिमा के रूप में अभियान सर्वमान्य नहीं है| निर्माण शैली के आधार पर ताला क पुरावशेषो को छठी ईस्वी के पूर्वाद्ध में रखा जा सकता है|




जेठानी मंदिर :- दक्षिणाभिमुखी यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है| भग्नावशेष के रूप में ज्ञात सरंचना उत्खनन अनावृत किया गया है| किन्तु कोई भी इसे देखकर इसकी भू – निर्माण योजना के विषय में जान सकता है| सामने इसमें गर्भगृह एवं मण्डप है| जिसमे पहुचने के लिए दक्षिण , पूर्व एवं पश्चिम दिशा से प्रविष्ट होते है| मंदिर का प्रमुख प्रवेश द्वार चौड़ी सीढियों से सम्बद्ध था| इसके चारो ओर बड़े एवं मोटे स्तंभों कि यष्टिया बिखरी पड़ी हुई है और यहाँ अनेक प्रतितो के अन्कंयुक्त है स्तम्भ के निचले भाग पर कुम्भ बने हुए है स्तंभों के उपरी भाग पर आमलक घट पर आधारित दर्शाया गया है जो कीर्तिमुख से निकली हुई लतावल्ली से अलंकृत है| मंदिर का गर्भगृह वाला भाग बहुत ही अधिक क्षतिग्रस्त है| और मंदिर के ऊपरी शिखर भाग के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुई है| दिग्पाल देवता या गजमुख चबूतरे पर निर्मित किये गए है| निसंदेह ताला स्थित स्मारकों के अवशेष भारतीय स्थापत्यकला के विलक्षण उदाहरण है| छत्तीसगढ़ के स्थापत्य कला कि मौलिकता इसके पाषाण खंड से जीवित हो उठी है

ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक क्षेणी के मनोहर सौंदर्य जो अतीत में वापस जाने एवं कालातीत मूर्तियों द्वारा मंत्रमुग्ध हो जाने जैसा है। निश्चित ही अनंत काल एवं कलात्मक पत्थर की मूर्तियों की यह भूमि ताला, अमेरिकापा गांव के समीप मनियारी नामक नदी के तट पर स्थित है। ताला शिवनाथ एवं मनियारी नदी के संगम पर स्थित है। देवरानी जेठानी मंदिरों के नाम से सबसे मशहूर ताला की खोज सन 1873 - 74 में जे.डी. वेलगर नामक व्यक्ति ने किया था, जो की प्रसिद्ध पुरातत्वविद अलेक्जेंडर कनिंघम के प्रमुख सहायक थे । इतिहासकारों द्वारा यह दावा किया गया है कि ताला गांव 7-8 वीं शताब्दी की है।जो की मेकाला के पांडुवामशियों के अभिलेखों में अंकित संगमग्राम के रूप में पहचाना जाता है।


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गुरुवार, 18 अगस्त 2022

शिवरीनारायण का मंदिर माता शबरी का आश्रम छत्तीसगढ़-इतिहास के पन्नो में - जहां शबरी भगवान राम शबरी के जूठे बेर खाये थे

Shivrinarayan Temple Chhattisgarh : शिवरीनारायण छत्तीसगढ़ में महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी के त्रिधारा संगम के तट पर स्थित प्राचीन एवं विख्यात कस्बा है। यह क़स्बा जांजगीर-चाम्पा जिले में स्थित है। यह "छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी" के नाम से के नाम से भी जाना जाता है। इसे छत्तीसगढ़ का गुप्त प्रयाग भी कहते है।



इतिहास :इस स्थान का वर्णन महाकाव्य रामायण में भी है। इसी स्थान पर भगवान श्रीराम ने शबरी नमक कोल आदिवासी महिला के जूठे बेर खाये थे। शबरी की स्मृति में 'शबरी-नारायण` नगर बसा है। यह स्थान बैकुंठपुर, रामपुर, विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात था।

शिवरीनारायण स्थित शबरीनारायण मंदिर का निर्माण शबर राजा द्वारा कराया गया मानते हैं। यहाँ ईंट और पत्थर से बना ११-१२ वीं सदी केशवनारायण मंदिर का मंदिर है। चेदि संवत् ९१९ का 'चंद्रचूड़ महादेव'' का एक प्राचीन मंदिर भी है।

महानदी के तट पर महेश्वर महादेव और कुलदेवी शीतला माता का भव्य मंदिर, बरमबाबा की मूर्ति और सुन्दर घाट है। जिसका निर्माण निर्माण संवत् १८९० में मालगुजार माखन साव के पिता श्री मयाराम साव और चाचा श्री मनसाराम और सरधाराम साव ने कराया है।



किंवदंती:एक किंवदंती के अनुसार शिवरीनारायण के शबरीनारायण मंदिर और जांजगीर के विष्णु मंदिर में छैमासी रात में बनने की प्रतियोगिता थी। सूर्योदय के पहले शिवरीनारायण का मंदिर बनकर तैयार हो गया इसलिये भगवान नारायण उस मंदिर में विराजे और जांजगीर का मंदिर को अधूरा ही छोड़ दिया गया जो आज उसी रूप में स्थित है।



रामायण में एक प्रसंग आता है जब देवी सीता को ढूंढते हुए भगवान राम और लक्ष्मण दंडकारण्य में भटकते हुए माता शबरी के आश्रम में पहुंच जाते हैं। जहां शबरी उन्हें अपने जूठे बेर खिलाती है जिसे राम बड़े प्रेम से खा लेते हैं। माता शबरी का वह आश्रम छत्तीसगढ़ के शिवरीनारायण में शिवरीनारायण मंदिर परिसर में स्थित है। महानदी, जोंक और शिवनाथ नदी के तट पर स्थित यह मंदिर व आश्रम प्रकृति के खूबसूरत नजारों से घिरे हुए है।
शबरी माता का आश्रम


भगवान श्री राम वनवास काल के दौरान जब चित्रकूट में निवास कर रहे थे| उसी दौरान मतंग ऋषि ने अपना देह का त्याग किया, मरनोउपरान्त आश्रम कि सारी जिम्मेदारी शबरी को सौपी ,क्युकी शबरी परम तेजस्वी, विदुषी,और वैष्णव भक्ति मार्ग पर चलने वाली आचार्य थी| 




ऋषि ने मृत्यु उपरांत गूढ़ रहस्य शबरी को बताते हुवे कहते है कि भगवान विष्णु का अवतार, मानव रूप में अयोध्या में दशरथ के पुत्र, श्री राम के रूप में हुवे है| उनके वनवास काल के दौरान इस आश्रम में आएगे ,तुम उनकी बड़ी श्रधा भाव से सेवा सत्कार करना जिससे तुम्हारा कल्याण होगा और मोक्ष कि प्राप्ति होगी एवं इस आश्रम का नाम लोग युगों युगों तक याद रखेंगे| ऐसा कहकर वह अपना प्राण त्याग देती है|


गुरु के आज्ञा अनुसार शबरी इस आश्रम का संचालन करती है|तथा प्रत्येक दिन भगवान के आने कि बाठ देखते रहती, आश्रम से रास्ते तक चुन -चुन के फूल सजाया करती थी| व भोग लगाने के लिए मीठे -मीठे फल कि व्यवस्था करती थी| ऐशा करते कई वर्ष बित चुके थे| माता नित- नित बूढी होती जा रही थी, मगर उसको विश्वास था कि,गुरु ने कहा है। तो, एकदिन भगवान इस आश्रम में जरुर आयेंगे ,आश्रम के कुछ शिष्य शबरी का उपहास किया करती थे| धीरे -धीरे एक-एक करके सभी शिष्य आश्रम छोड़कर चले जाते है|


कई वर्ष उपरांत, आखिर वह घडी आ गयी जब भगवान राम माता सीता कि खोज में वन वन भटकते हुवे साधारण मानव के रूप में माता शबरी के आश्रम में आते है | भगवान को अपने सम्मुख देखकर शबरी आत्म विभोर हो जाती है| उन्हें अपनी बूढी आखो पर विश्वास नहीं होता कि प्रभु उनके सम्मुख खड़े है| माता शबरी एक परम तपस्वनी थी उसने अपने योग


भगवान राम के चरण कमल

शक्ति के द्वारा प्रभू को पहचान लेती है| तथा दण्डवत चरणों में गिरकर लिपट जाती है|आसुवो कि धारा बहने लगती है| भगवान माता कि इस करुना भरी प्रेम से आत्म विभोर हो जाते है|




शिवरी नारायण मंदिर के कारण ही यह स्थान छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ है | मान्यता है कि इसी स्थान पर प्राचीन समय में भगवान जगन्नाथ जी की प्रतिमा स्थापित रही थी, परंतु बाद में इस प्रतिमा को जगन्नाथ पुरी में ले जाया गया था । इसी आस्था के फलस्वरूप माना जाता है कि आज भी भगवान जगन्नाथ जी यहां पर आते हैं |

शिवरीनारायण छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले में आता है। यह बिलासपुर से 64 और रायपुर से 120 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस स्थान को पहले माता शबरी के नाम पर शबरीनारायण कहा जाता था जो बाद में शिवरीनारायण के रूप में प्रचलित हुआ।

शिवरीनारायण मंदिर


शिवरीनारायण कहलाता है गुप्त धाम :-
देश के प्रचलित चार धाम उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिका धाम स्थित हैं। लेकिन मध्य में स्थित शिवरी नारयण को ”गुप्तधाम” का स्थान प्राप्त है। इस बात का वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है।

शबरी का असली नाम श्रमणा था, वह भील सामुदाय के शबर जाति से सम्बन्ध रखती थीं। उनके पिता भीलों के राजा थे। बताया जाता है कि उनका विवाह एक भील कुमार से तय हुआ था, विवाह से पहले सैकड़ों बकरे-भैंसे बलि के लिए लाये गए जिन्हें देख शबरी को बहुत बुरा लगा कि यह कैसा विवाह जिसके लिए इतने पशुओं की हत्या की जाएगी। शबरी विवाह के एक दिन पहले घर से भाग गई। घर से भाग वे दंडकारण्य पहुंच गई।



यह कटोरीनुमा पत्‍ता कृष्‍ण वट का है। लोगों का मानना है कि शबरी ने इसी पत्‍ते में रख कर श्रीराम को बेर खिलाए थे।


दंडकारण्य में ऋषि तपस्या किया करते थे, शबरी उनकी सेवा तो करना चाहती थी पर वह हीन जाति की थी और उनको पता था कि उनकी सेवा कोई भी ऋषि स्वीकार नहीं करेंगे। इसके लिए उन्होंने एक रास्ता निकाला, वे सुबह-सुबह ऋषियों के उठने से पहले उनके आश्रम से नदी तक का रास्ता साफ़ कर देती थीं, कांटे बीन कर रास्ते में रेत बिछा देती थी। यह सब वे ऐसे करती थीं कि किसी को इसका पता नहीं चलता था।


एक दिन ऋषि मतंग की नजऱ शबरी पर पड़ी, उनके सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में शरण दे दी, इस पर ऋषि का सामाजिक विरोध भी हुआ पर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में ही रखा। जब मतंग ऋषि की मृत्यु का समय आया तो उन्होंने शबरी से कहा कि वे अपने आश्रम में ही भगवान राम की प्रतीक्षा करें, वे उनसे मिलने जरूर आएंगे।


मतंग ऋषि की मौत के बात शबरी का समय भगवान राम की प्रतीक्षा में बीतने लगा, वह अपना आश्रम एकदम साफ़ रखती थीं। रोज राम के लिए मीठे बेर तोड़कर लाती थी। बेर में कीड़े न हों और वह खट्टा न हो इसके लिए वह एक-एक बेर चखकर तोड़ती थी। ऐसा करते-करते कई साल बीत गए।


एक दिन शबरी को पता चला कि दो सुकुमार युवक उन्हें ढूंढ रहे हैं। वे समझ गईं कि उनके प्रभु राम आ गए हैं, तब तक वे बूढ़ी हो चुकी थीं, लाठी टेक के चलती थीं। लेकिन राम के आने की खबर सुनते ही उन्हें अपनी कोई सुध नहीं रही, वे भागती हुई उनके पास पहुंची और उन्हें घर लेकर आई और उनके पाँव धोकर बैठाया। अपने तोड़े हुए मीठे बेर राम को दिए राम ने बड़े प्रेम से वे बेर खाए और लक्ष्मण को भी खाने को कहा।


लक्ष्मण को जूठे बेर खाने में संकोच हो रहा था, राम का मन रखने के लिए उन्होंने बेर उठा तो लिए लेकिन खाए नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि राम-रावण युद्ध में जब शक्ति बाण का प्रयोग किया गया तो वे मूर्छित हो गए थे।
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प्रकृति की अकूत खजाना शिवनाथ का रोमांच मंडूक ऋषि तपश्चर्या स्थली जंहा हुई मांडुक्योपनिषद ग्रंथ की रचना-मदकू द्वीप

 भाटापारा नगर प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र है। यहाँ से कड़ार-कोटमी गांव होते हुए मदकू द्वीप लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर है। रायपुर-बिलासपुर राजमार्ग के 76 वें माईल स्टोन पर स्थित बैतलपुर से यह दुरी 4 किलोमीटर है। रेल और सड़क मार्ग दोनो से इस स्थान पर पहुंचा जा सकता है।





शिवनाथ नदी  के बीचों-बीच पर्यटन की अनूठी जगह मदकू द्वीप। इससे अहम कि यह दो धर्म और आस्था का संगम स्थल है। सदानीरा शिवनाथ की धाराएं यहां ईशान कोण में बहने लगती हैं। वास्तु शास्त्र के हिसाब से यह दिशा सबसे पवित्र मानी जाती है।

ग्रामीण जनता अज्ञात अतीत काल से इसे शिव क्षेत्र मानते आ रही है यहाँ श्रावण मास, कार्तिक पूर्णिमा, शिवरात्रि के अतिरिक्त चैत्र मास में विशिष्ट पर्वों पर क्षेत्रिय जनों का यहाँ धार्मिक, आध्यात्मिक समागम होता है। सांस्कृतिक दृष्टि से जब हम विचार करते हैं, तो वर्तमान प्रचलित नाम मदकू संस्कृत के मण्डुक्य से मिश्रित अपभ्रंश नाम है। शिवनाथ की धाराओं से आवृत्त इस स्थान की सुरम्यता और रमणीयता मांडुक्य ॠषि को बांधे रखने में समर्थ सिद्ध हुई और इसी तपश्चर्या स्थली में निवास करते हुए मांडुक्योपनिषद जैसे धार्मिक ग्रंथ की रचना हुई। शिव का धूमेश्वर नाम से ऐतिहासिकता इस अंचल में विभिन्न अंचल के प्राचीन मंदिरों के गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंगों से होती है अर्थात पुरातात्विक दृष्टि से दसवीं शताब्दी ईंसवी सन में यह लोकमान्य शैव क्षेत्र था। दसवीं शताब्दी से स्थापित तीर्थ क्षेत्र के रुप में इसकी सत्ता यथावत बनी हुई है।

 इसी प्रकार संस्कृति विभाग के ही राहुल कुमार सिंह ने मदकू के इतिहास संबंधी पुष्ट और अधिकृत जानकारी प्रदान की। जिनके अनुसार -” इंडियन एपिग्राफ़ी के वार्षिक प्रतिवेदन 1959-60 में क्रमांक बी-173 तथा बी 245 पर मदकू घाट बिलासपुर से प्राप्त ब्राह्मी एवं शंख लिपि के शिलालेखों की प्रविष्टि है, जो लगभग तीसरी सदी ईंसवी के हो सकते हैं, भारतीय प्रुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के दक्षिण-पुर्वी वृत्त के कार्यालय विशाखापटनम में रखे हैं।” इससे सिद्ध होता है कि मदकू द्वीप का इतिहास गौरवशाली रहा है। यहाँ की प्राचीन धरोहर को सुरक्षित रखने का एवं प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त इस द्वीप का पर्यटन हेतु विकास करने का कार्य छत्तीसगढ शासन कर रहा है।




24 हेक्टेयर में फैले मदकू द्वीप के पास ही एक और छोटा द्वीप 5 हेक्टेयर का है। दोनों बीच टूरिस्ट बोटिंग का आनंद ले सकते हैं। जैव विविधता से परिपूर्ण द्वीप में माइक्रो क्लाइमेट (सोला फॉरेस्ट) निर्मित करता है। यहां विशिष्ट प्रजाति के वृक्ष पाए जाते हैं। इसमें चिरौट (सिरहुट) के सदाबहार वृक्ष प्रमुख हैं।



शिवनाथ नदी के पानी से घिरा मदकू द्वीप आम तौर पर जंगल जैसा ही है।  शिवनाथ नदी के बहाव ने मदकू द्वीप को दो हिस्सों में बांट दिया है। एक हिस्सा लगभग 35 एकड़ में है, जो अलग-थलग हो गया है। दूसरा करीब 50 एकड़ का है, जहां 2011 में उत्खनन से पुरावशेष मिले हैं। 

नदी किनारे से पुरावशेष के मूल अकूत खजाने तक पहुंचने की पगडंडी के दोनों पेड़ों के घने झुरमुट हैं। यहां नदी से बहते पानी की कलकल आती आवाज रोमांचित करती हैं। चलते-चलते जैसे ही पुरातत्व स्थान का द्वार दिखता है, हमारी उत्सुकता भी शिवनाथ नदी की माफिक उफान पर होती है। मुख्य द्वार से अंदर पहुंचते ही दायीं तरफ पहले धूमेश्वर महादेव मंदिर और फिर श्रीराम केवट मंदिर आता है। थोड़ी दूर पर ही श्री राधा कृष्ण, श्री गणेश और श्री हनुमान के प्राचीन मंदिर भी हैं। 



 11वीं सदी के कल्चुरी कालीन पुरावैभव की कहानी बयां करते हैं। यहां उत्खनन के साक्षी रहे छत्तीसगढ़ के संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के पर्यवेक्षक प्रभात कुमार सिंह ने एक पुस्तक में वर्णन किया है, इसे मांडूक्य ऋषि की तपो स्थली के रूप में तीन दशक पहले प्रोफेसर डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर ने चिन्हित किया था। संभवत: यही पर ऋषि ने 'माण्डूक्योपनिषद्' की रचना की। संविधान में समाहित किए गए 'सत्यमेव जयते' भी इसी महाकृति के प्रथम खंड का छठवां मंत्र है।

वर्ष 1985 से यहां श्री राधा कृष्ण मंदिर परिसर में पुजारी के तौर पर काम कर रहे वीरेंद्र कुमार शुक्ला बताते हैं, पुरा मंदिरों के समूह वाला गर्भगृह पहले समतल था। जब खुदाई हुई तो वहां 19 मंदिरों के भग्नावशेष और कई प्रतिमाएं बाहर आईं। इसमें 6 शिव मंदिर, 11 स्पार्तलिंग और एक-एक मंदिर क्रमश: उमा-महेश्वर और गरुड़ारूढ़ लक्ष्मी-नारायण मंदिर मिले हैं। खुदाई के बाद वहां बिखरे पत्थरों को मिलाकर मंदिरों का रूप दिया गया। मदकू द्वीप की खुदाई में 6 शिव मंदिर, 11 स्पार्तलिंग और एक-एक उमा-महेश्वर और गरुड़ारूढ़ लक्ष्मी-नारायण मंदिर मिले। बाद में वहां पत्थरों को मिलाकर मंदिरों का रूप दिया गया।

मंदिरों के गिरने के विषय में कहते हैं कि-“आज से करीब डेढ दो सौ साल पहले शिवनाथ नदी में भयंकर बाढ आई थी। जिसका बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर था। जिससे सारे मंदिरों के पत्थर हमको दक्षिण से उत्तर की ओर ढहे हुए मिले। यह बाढ से ढहने का प्रमाण है। बाढ इतनी भयंकर थी कि टापू के उपर भी एक दो मीटर पानी बहने लगा था। बाढ से विनाश होने का प्रमाण यह भी है कि चारों तरफ़ महीन रेत (शिल्ट) जमा है। यह महीन शिल्ट सिर्फ़ पानी से ही आ सकता है। लगभग एक मीटर का शिल्ट डिपाजिट है। जो स्पष्ट दिख रहा है काली लाईन के नीचे। बाढ का पानी तेजी से आया और काफ़ी समय तक यह द्वीप पानी में डूबा रहा। अधिकांश पत्थर तो टूट-फ़ूट गए हैं। जितने भी पत्थर यहाँ उपलब्ध है उनसे पुनर्रचना हम कर दें यही हमारा प्रयास है। इन मंदिरों की नींव सलामत थी इसलिए हम उसी पर पुनर्रचना कर रहे हैं।

पांच साल में इस पुरावैभव के संरक्षण को लेकर अपेक्षित काम नहीं हो पाया। लोहे का डोम बना कर इन मंदिरों को धूप और बरसात से सुरक्षित तो कर लिया गया, लेकिन सदियों पुरानी इस विरासत की पुख्ता सार-संभाल करने वाला कोई नहीं है। क्या आधे-अधूरे साधनों से हम इस धरोहर को बचा पाएंगे।





यह सवाल इसलिए भी अहम हो चुका है, क्योंकि मुंगेली और बलौदाबाजार जिले को यहां मिलाने वाली शिवनाथ नदी के किनारों को रेत माफिया जिस तरह आसपास की जगहों को खोखला कर रहा है, वह इस मदकू द्वीप के लिए बड़ा खतरा बना हुआ है। छत्तीसगढ़ के इस 'मोहनजोदड़ो' खजाने के जमीन में छिपे अनमोल रहस्यों को बाहर लाने के लिए गहन शोध के साथ ही राजकीय संरक्षण भी जरुरी है।

1959-60 की इंडियन एपिग्राफी रिपोर्ट में मदकू द्वीप से प्राप्त दो प्राचीन शिलालेखों का उल्लेख है। पहला लगभग तीसरी सदी ईस्वी की ब्राह्मी लिपि में अंकित है। इसमें किसी अक्षय निधि का उल्लेख किया गया है। दूसरा शंखलिपि में है। दोनों भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन दक्षिण पूर्व मंडल कार्यालय विशाखापट्नम में रखे गए हैं।
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यहाँ की दीवारें मानों कह रही हों कि प्रेम और प्रेम अहसास-भगवान शिव का बसेरा ,छत्तीसगढ़ की भोरमदेव के मंदिर की यात्रा

छत्तीसगढ का खजुराहो भोरमदेव मंदिर।




Hello! दोस्तो आज हम एक ऐसे सुंदरता के बारे में बात करने जा रहे है जिसे देखने लोग दूर दूर से आते है । छत्तीसगढ़ राज्य के खजुराहो कहे जाने वाले भोरमदेव मंदिर का जोकि जनजातीय संस्‍कृति, स्‍थापत्‍य कला और प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर है। इस दृश्य को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते है।

हर दीवार और स्तम्भ में लोग बस एक ही काम में व्यस्त हैं और वो है प्रेम क्रीड़ा. स्त्री-पुरुष के परम प्रेम की परिणिति काम-क्रीडा को परिलक्षित करती. वहीं यहाँ की दीवारें मानों कह रही हों कि प्रेम और प्रेम अहसास बस यहीं है यहाँ की मूर्तियों में.




भारत का हर एक राज्य अपनी किसी न किसी खास चीज के लिए प्रसिद्ध है. इसी कड़ी में अगर छत्तीसगढ़ की बात करें, तो वहां का भोरमदेव मंदिर खासा आकर्षण का केंद्र रहा है, जोकि जनजातीय संस्‍कृति, स्‍थापत्‍य कला और प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर है.चूंकि, भोरमदेव के मंदिर की तुलना मध्य प्रदेश के खजुराहो और ओडिशा के सूर्य मंदिर से की जाती है. ऐसे में इसको जानना दिलचस्प रहेगा। भोरमदेव मंदिर छत्तीसगढ के कबीरधाम जिले में कबीरधाम से 18 कि॰मी॰ दूर तथा रायपुर से 125 कि॰मी॰ दूर चौरागाँव में एक हजार वर्ष पुराना मंदिर है।


मंदिर का मुख पूर्व की ओर है। मंदिर नागर शैली का एक सुन्दर उदाहरण है। मंदिर में तीन ओर से प्रवेश किया जा सकता है। मंदिर एक पाँच फुट ऊंचे चबुतरे पर बनाया गया है। तीनो प्रवेश द्वारो से सीधे मंदिर के मंडप में प्रवेश किया जा सकता है। मंडप की लंबाई 60 फुट है और चौडाई 40 फुट है। मंडप के बीच में में 4 खंबे है तथा किनारे की ओर 12 खम्बे है जिन्होने मंदप की छत को संभाल रखा है। सभी खंबे बहुत ही सुंदर एवं कलात्मक है। प्रत्येक खंबे पर कीचन बना हुआ है। मंदिर के गर्भगृह में अनेक मुर्तियां रखी है तथा इन सबके बीच में एक काले पत्थर से बना हुआ शिवलिंग स्थापित है।


मंदिर के चारो ओर बाहरी दीवारो पर विश्नु, शिव चामुंडा तथा गणेश आदि की मुर्तियां लगी है। इसके साथ ही लक्ष्मी विश्नु एवं वामन अवतार की मुर्ति भी दीवार पर लगी हुई है। देवी सरस्वती की मुर्ति तथा शिव की अर्धनारिश्वर की मुर्ति भी यहां लगी हुई है


मंदिर की कलाकृति



छत्तीसगढ़ का भोरमदेव, जहाँ कामकला में सराबोर मूर्तिया बरबस ही इंसान को हजारों साल पहले के भारत में ले जाती हैं. भोरमदेव मंदिर की मान्यता सिर्फ इसलिए नहीं की वह एक मंदिर है और वहां शिवजी भोरमदेव के रूप में विराजते हैं.
           इससे बढ़कर इसकी मान्यता इसलिए भी है, क्योंकि इसका धार्मिक और पुरातात्विक महत्त्व भी है. भोरमदेव का मंदिर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के गृहग्राम कवर्धा जिले से मात्र से 18 किलोमीटर की दूरी पर सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है. इसके पूर्व की में मैकल पर्वत श्रृंखलाएं, जो इसे और भी सुरम्य बनाती हैं.


कवर्धा एक छोटा सा जिला है, जो अपने में किसी बड़े शहर के मानिंद खूबसूरती समेटे है. इसी कवर्धा से भोरमदेव मंदिर का रास्ता है, जो हराभरा और शांत है. धीरे-धीरे घने होते वन और उनके बीच सिमटता मंदिर सच में स्वर्ग का अहसास करवाता है.


भगवान शिव का बसेरा



मड़वा महल

भोरमदेव के बारे में मान्यता है कि वह शिव के ही एक अन्‍य रूप हैं, जो गोंड समुदाय के पूजनीय देव थे. इन्ही भोरमदेव के नाम से इस मंदिर का निर्माण हुआ. इसके आस पास और भी देवताओं जैसे वैष्‍णव, बौद्ध और जैन प्रतिमाएं भी हैं. किन्तु, शिव के मंदिर की भव्यता यह साबित करने के लिए काफी है कि इस मंदिर के निर्माता नागवंशी शासक शिव के परम भक्त थे. शायद यही कारण है कि यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है. भगवान शिव यहां भी शिवलिंग रूप में विराजमान हैं.


मुख्य मंदिर दो भागों में विभाजित है. इसके बड़े भाग यानि मुख मंडप में शिवलिंग है , जो एक ऊँचे मंच पर स्थित है. यहाँ शिवलिंग पूर्व मुखी है. शिव के अलावा भगवान विष्णु और उनके कई अवतार जैसे नरसिंह, वामन, नटराज, कृष्ण आदि की मूर्तिया हैं. साथ ही भगवान गणेश, काल भैरव और सूर्य भी यहां देखने को मिलते हैं.

गढ़ो का राज्य

कहा जाता है कि अपने छत्‍तीसगढ़ गढ़ों यानि किलों के कारण छत्तीसगढ़ का नाम पड़ा. स्‍थापत्‍य कला के अनेक उदाहरण आपको यहाँ देखने को मिल जाएंगे. किन्तु, भोरमदेव की स्थापत्य कला उन सबसे जुदा है.


इस मंदिर का सौंदर्य आपको खजुराहो, अन्जनता एलोरा और कोणार्क की याद दिलाता है. यही कारण है कि बोलचाल की भाषा ने इसे छत्तीसगढ़ का खजुराहों भी कह दिया जाता है. यहां की कामुक मुद्रा वाली मूर्तियां, जो यकीनन काफी सुंदर हैं.


इस मंदिर में बाहर की ओर 54 की संख्या में मूर्तियाँ है, जो कामसूत्र के विभिन्न आसनों से प्रेरित हैं. कई लोग इसको शाश्वत प्रेम और सुंदरता का प्रतीक मानते हैं, तो कई इनकी कला को देखकर अभिभूत होते हैं. इस मंदिर के आधार पर नागवंशी शासकों को खजुराहो के शासकों के समकालीन माना जा सकता है.

मंदिर में जो भी निर्माण कार्य है किए गए है, उन्हें देखकर ऐसा लगता है, जैसे मानो वह खजुराहो से प्रेरित हैं. हालांकि, यह कितना सच यह कुछ नहीं कहा जा सकता।

यह मंदिर 11 शताब्दी के आसपास बना कला का बेहतरीन का नमूना हैं. अगर शैली की बात की जाए, तो इसके हर भाग में कलाकृतियां बारीकी से उकेरी गयी हैं.मंदिर में सिर्फ कामुक मूर्तियाँ ही नहीं, बल्कि उस काल का पूरा जीवन दिखता है.





प्रेम उत्सव! दीवारे भक्ति का प्रतीक




भोरमदेव मंदिर की स्‍थापत्‍य चंदेल शैली है. खजुराहो और कोणार्क के सूर्य मंदिर के समान यहाँ भी मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीन समानांतर क्रम में विभिन्‍न प्रतिमाओं को उकेरा गया है!

हर दीवार और स्तम्भ में लोग बस एक ही काम में व्यस्त हैं और वो है प्रेम क्रीड़ा. स्त्री-पुरुष के परम प्रेम की परिणिति काम-क्रीडा को परिलक्षित करती. वहीं यहाँ की दीवारें मानों कह रही हों कि प्रेम और प्रेम अहसास बस यहीं है यहाँ की मूर्तियों में.



सम्भोग तो है पर साथ ही नाच, गाना, भक्ति और वो सब मुद्राएं हैं, जो खुशहाल जीवन का प्रतीक होती हैं. नाचते गाते आदिवासी उस काल के जीवन-दर्शन को दिखाते हैं, जहां कोई भेदभाव भाव नहीं था. सब साथ मिलकर नाच गाकर उत्सव मानते दिखते हैं.


तो दोस्तो ये थी छत्तीसगढ़ की सुंदरता का एक रूप आशा करता हु की आपको ये जानकारी अच्छी लगी होगी और आगे आप यह जाने का प्लान बनाएंगे यह कि खूबसूरती का मजा उठाने और अगर ये जानकारी आपको अच्छी लगी तो like👍 और comment जरूर कीजिये ताकि आगे हुम् इशी तरह नई-नई जानकारियाँ आपके लिए लाते रहे।




धन्यवाद☺️
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जीवनदायनी नदी चित्रोतपल के तट पर स्थित सौ वर्ष से पहले की “प्यार का लाल प्रतीक” के नाम से प्रशिद्ध लक्ष्मण मंदिर की यात्रा

Red Symbol Of Love Laxman Mandir ...................
प्रेम का लाल प्रतीक लक्ष्मण मंदिर...............

Hello! दोस्तों आपने ताज महल के बारे में तो बहोत सुना होगा इसे लोग “प्यार की निशानी” भी कहते है जो आगरा में स्थित है। आज हम आपको ताजमहल से लगभग 11 सौ वर्ष पूर्व स्मारक“प्यार का लाल प्रतीक” के नाम से प्रशिद्ध लक्ष्मण मंदिर की,जो छत्तीसगढ़ में स्थित हैं।



लक्ष्मण मंदिर सिरपुर / Laxman Mandir


सिरपुर एक प्राचीनतम नगरी व छत्तीसगढ़ कि राजधानी थी जो छत्तीसगढ़ कि जीवनदायनी नदी चित्रोतपल (महानदी) के तट पर स्थित है |सिरपुर छत्तीसगढ़ के महासमुन्द जिले पर स्थित है| राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 6 पर आरंग से 24 कि.मी आगे बांयी ओर लगभग 16 कि.मी पर सिरपुर स्थित है रायपुर से सिरपुर कि दूरी 59 कि.मी है।

आगरा में अपनी चहेती बेगम आरजूमंद बानो (मुमताज) की स्मृति में शाहजहां ने ईसवी 1631-1645 के मध्य ताजमहल का निर्माण कराया। सफेद संगमरमर के ठोस पत्थरों को दुनियाभर के बीस हजार से भी अधिक शिल्पकारों द्वारा तराशी गई इस कब्रगाह को मुमताज महल के रूप में प्रसिद्धि मिली। लेकिन लक्ष्मण मंदिर की प्रेम कहानी ताजमहल से भी अधिक पुरानी है। दक्षिण कौशल में पति प्रेम की इस निशानी को भूगर्भ से उजागर हुए तथ्यों से स्पष्ट है कि 635-640 ईसवीं में राजा हर्षगुप्त की याद में रानी वासटादेवी ने बनवाया था। खुदाई में मिले शिलालेखों के मुताबिक प्रेम के स्मारक ताजमहल से भी अधिक पुरानी प्रेम कहानी लक्ष्मण मंदिर स्मारक के रूप में प्रमाणित है।



छठी शताब्दी में निर्मित भारत का सबसे पहला ईंटों से बना मंदिर यहीं पर है. सोमवंशी नरेशों ने यहां लाल ईंटो से राम मंदिर और लक्ष्मण मंदिर का निर्माण कराया था. अलंकरण, सौंदर्य, मौलिक अभिप्राय व निर्माण कौशल की दृष्टि से यह अपूर्व है। सिरपुर का पुरा इतिहास लक्ष्मण मंदिर के वैभव से सदैव जुड़ा रहा। हरेक कालक्रम में इससे जुड़े नए तथ्य भी सामने आए, जिसमें लगभग पंद्रह सौ वर्षों पूर्व निर्मित ईंटों से बनी इस इमारत की शिल्पगत विशेषताओं की अधिक चर्चा की गई।



महाभारत काल में इसका नाम चिनागढ़पुर था |ईशा पुर 6 वी शताब्दी में इसे श्रीपुर कहा जाता था 5 वी सदी से 8 वी सदी के मध्य यह दक्षिण कोशल कि राजधानी थी 7 वी सदी के चीनी यात्री हेडसम भारत आया था उस समय उसने पुरे भारत कि यात्रा कि थी वा घूमते हुवे श्रीपुर आया था तब उस समय वहा पर बौद्ध धर्म विकसित अवस्था में था। तात्कालिक समय में पाण्ड़ुवंश शासण कर रहा था| उसकी माता वासटा ने अपने पति हर्षगुप्त कि याद में लक्ष्मण मंदिर का निर्माण करवाया था| लाल इटो से बना यह मंदिर विश्व प्रसिद्ध हैं।



सन 1977 में यहाँ पर पुरातत्व विभाग द्वारा यहाँ पर खुदाई का कार्य करवाया था जिसमे अनेक पुरातात्विक सामग्री मिली है जैसे शिला लेख ,ताम्र पत्र बौद्ध विहार अनेक प्राचीन मुर्तिया प्राप्त हुवा था, जो अपने आप में अध्भूत है। यहाँ पर अति प्राचीन मंदिर वा मुर्तिया स्थित है जिसे एक संग्राहलय में सजो के रखा गया है जिसे आप एक साथ देख सकते है। मंदिर अपनी बनावट और महीन नक्काशी के लिये प्रसिद्ध है सिरपुर में लक्ष्मण मंदिर के साथ -साथ बहुत से मंदिर देखने योग्य है जिसमे प्रमुख गंधेश्वर महादेव मंदिर ,राधा कृष्णा,चंडी मंदिर ,आनंद प्रभु कुटीर विहार प्रमुख रूप से है। यहा पर अभी भी खुदाई करने से पुराने अवशेस मुर्तिया आदि मिलती है। सिरपुर का इतिहास अभी और खोजना बाकि है।



यहाँ पर सिरपुर के सम्मान में सिरपुर महोत्सव का आयोजन शासन के द्वार किया जाता है जिसमे भारी संख्या में लोग यहां उपस्थिति होते है और दे रंगारंग धार्मिक कार्यक्रम का आनंद उठाते है। यहा पर भारी मात्रा में सावन के महीने में शिव भक्त आतें है और भगवान गंधेश्वर को जल अभिषेक करते है पूरा वातावरण शिव भक्ति में मंगन रहते है, यहाँ पर प्रतिवर्ष शिवरात्रि पर 3 दिनों का मेला लगता है तब यहां का भीड़ देखने लायक होता है।


यहाँ पर भारत से हे नहीं देश - विदेश से इस नगरी और लक्ष्मण मंदिर को देखने के लिये आते है। सिरपुर एक उत्तम पर्यटन स्थल है सिरपुर प्राकृतिक दृष्टी से परिपूर्ण है यहाँ के घने जंगल के बीच मानो सिरपुर प्राकृति की गोद मे स्थित है।




भारतवर्ष की पावन भूमि के हृदय में स्थित छत्तीसगढ़ अनादिकाल की देवभूमि के रूप में प्रतिष्ठित है. इस भूमि पर विभिन्न संप्रदायों के मंदिर, मठ, देवालय हैं जो इसकी विशिष्ट संस्कृति और परंपराओं को और भी सुदृढ़ बनाते हैं। ऐसी ही विशिष्टता को सदियों से समेटे रहा है छत्तीसगढ़ का सिरपुर स्थित लाल ईंटों से बना मौन प्रेम का साक्षी लक्ष्मण मंदिर. बाहर से देखने पर यह सामान्य हिंदू मंदिर की तरह ही नज़र आता है, लेकिन इसके वास्तु, स्थापत्य और इसके निर्माण की वज़ह से इसे लाल ताजमहल भी कहा जाता है. चूंकि, यह कौशल प्रदेश के हर्ष गुप्त की विधवा रानी वासटा देवी के अटूट प्रेम का प्रतीक बताया जाता है, इसलिए जानना दिलचस्प रहेगा– बौद्ध धर्म का तीर्थ रहा सिरपुर!





छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर स्थित सिरपुर का अतीत सांस्कृतिक विविधता व वास्तुकला के लालित्य से ओत-प्रोत रहा है। इसे 5वीं शताब्दी के आसपास बसाया गया था. ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि यह 6ठी सदी से 10वीं सदी तक बौद्ध धर्म का प्रमुख तीर्थ स्थल रहा. खुदाई में यहां पर प्राचीन बौद्ध मठ भी पाए गए, वह तो 12वीं सदी में आए एक विनाशकारी भूकंप ने इस जीवंत शहर को पूरी तरह से तबाह कर दिया. कहते हैं इस आपदा से पहले यहां बड़ी संख्या में बौद्ध लोग रहा करते थे. प्राकृतिक आपदाओं के कारण उन्हें इस शहर को छोड़ना पड़ा


प्राकृतिक आपदाओं से बेअसर लक्ष्मण मंदिर की सुरक्षा और संरक्षण के कोई विशेष प्रयास न किए जाने के बावजूद मिट्टी के ईंटों की बानी यह इमारत अपने निर्माण के चौदह सौ सालों बाद भी शान से खड़ी हुई है। 12वीं शताब्दी में भयानक भूकंप के झटके में सारा श्रीपुर (अब सिरपुर) जमींदोज़ हो गया। 14वीं-15वीं शताब्दी में चित्रोत्पला महानदी की विकराल बाढ़ ने भी वैभव की नगरी को नेस्तनाबूत कर दिया लेकिन बाढ़ और भूकंप की इस त्रासदी में भी लक्ष्मण मंदिर अनूठे प्रेम का प्रतीक बनकर खड़े रहा है। हालांकि इसके बिल्कुल समीप बना राम मंदिर पूरी तरह ध्वस्त हो गया और पास ही बने तिवरदेव विहार में भी गहरी दरारें पड़ गई,लेकिन लक्ष्मण मंदिर इमारत शान से आज भी मजबूती के साथ खड़ा है।

आपको जानकर यह हैरानी हो सकती है कि यूरोपियन साहित्यकार “एडविन एराल्ड” ने इस मंदिर की तुलना प्रेम के प्रतीक ताजमहल से की है. इन्होंने ताजमहल को जीवित पत्थरों से निर्मित प्रेम की संज्ञा दी और लक्ष्मण मंदिर को लाल ईंटों से बना मौन प्रेम का प्रतीक बताया और साहित्यकार “अशोक शर्मा” ने ताजमहल को पुरूष के प्रेम की मुखरता और लक्ष्मण मंदिर को नारी के मौन प्रेम और समर्पण का जीवंत उदाहरण बताया है। उनका मानना है कि इतिहास गत धारणाओं के आधार पर ताजमहल और लक्ष्मण मंदिर का तुलनात्मक पुनर्लेखन किया जाए तो लक्ष्मण मंदिर सबसे प्राचीन प्रेम स्मारक सिद्ध होता है।

ताजमहल समय के गाल पर जमा हुआ आंसू है, लेकिन लक्ष्मण मंदिर समय के भाल पर आज भी बिंदी सा चमक रहा है।

“गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर”


तो दोस्तो आशा करता हु की आप को ये जानकारी अछि लगी और आप एक बार जरूर यह जान चाहोगे। तो दोस्तो हुम् फिर आपके लिए ऐशी रोचक जानकारी लेते रहेंगे आप और ये जानकारी अच्छी लगी तो Like,Coment और Share जरूर कीजिये।


धन्यवाद☺️
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