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गुरुवार, 18 अगस्त 2022

प्रकृति की अकूत खजाना शिवनाथ का रोमांच मंडूक ऋषि तपश्चर्या स्थली जंहा हुई मांडुक्योपनिषद ग्रंथ की रचना-मदकू द्वीप

 भाटापारा नगर प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र है। यहाँ से कड़ार-कोटमी गांव होते हुए मदकू द्वीप लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर है। रायपुर-बिलासपुर राजमार्ग के 76 वें माईल स्टोन पर स्थित बैतलपुर से यह दुरी 4 किलोमीटर है। रेल और सड़क मार्ग दोनो से इस स्थान पर पहुंचा जा सकता है।





शिवनाथ नदी  के बीचों-बीच पर्यटन की अनूठी जगह मदकू द्वीप। इससे अहम कि यह दो धर्म और आस्था का संगम स्थल है। सदानीरा शिवनाथ की धाराएं यहां ईशान कोण में बहने लगती हैं। वास्तु शास्त्र के हिसाब से यह दिशा सबसे पवित्र मानी जाती है।

ग्रामीण जनता अज्ञात अतीत काल से इसे शिव क्षेत्र मानते आ रही है यहाँ श्रावण मास, कार्तिक पूर्णिमा, शिवरात्रि के अतिरिक्त चैत्र मास में विशिष्ट पर्वों पर क्षेत्रिय जनों का यहाँ धार्मिक, आध्यात्मिक समागम होता है। सांस्कृतिक दृष्टि से जब हम विचार करते हैं, तो वर्तमान प्रचलित नाम मदकू संस्कृत के मण्डुक्य से मिश्रित अपभ्रंश नाम है। शिवनाथ की धाराओं से आवृत्त इस स्थान की सुरम्यता और रमणीयता मांडुक्य ॠषि को बांधे रखने में समर्थ सिद्ध हुई और इसी तपश्चर्या स्थली में निवास करते हुए मांडुक्योपनिषद जैसे धार्मिक ग्रंथ की रचना हुई। शिव का धूमेश्वर नाम से ऐतिहासिकता इस अंचल में विभिन्न अंचल के प्राचीन मंदिरों के गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंगों से होती है अर्थात पुरातात्विक दृष्टि से दसवीं शताब्दी ईंसवी सन में यह लोकमान्य शैव क्षेत्र था। दसवीं शताब्दी से स्थापित तीर्थ क्षेत्र के रुप में इसकी सत्ता यथावत बनी हुई है।

 इसी प्रकार संस्कृति विभाग के ही राहुल कुमार सिंह ने मदकू के इतिहास संबंधी पुष्ट और अधिकृत जानकारी प्रदान की। जिनके अनुसार -” इंडियन एपिग्राफ़ी के वार्षिक प्रतिवेदन 1959-60 में क्रमांक बी-173 तथा बी 245 पर मदकू घाट बिलासपुर से प्राप्त ब्राह्मी एवं शंख लिपि के शिलालेखों की प्रविष्टि है, जो लगभग तीसरी सदी ईंसवी के हो सकते हैं, भारतीय प्रुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के दक्षिण-पुर्वी वृत्त के कार्यालय विशाखापटनम में रखे हैं।” इससे सिद्ध होता है कि मदकू द्वीप का इतिहास गौरवशाली रहा है। यहाँ की प्राचीन धरोहर को सुरक्षित रखने का एवं प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त इस द्वीप का पर्यटन हेतु विकास करने का कार्य छत्तीसगढ शासन कर रहा है।




24 हेक्टेयर में फैले मदकू द्वीप के पास ही एक और छोटा द्वीप 5 हेक्टेयर का है। दोनों बीच टूरिस्ट बोटिंग का आनंद ले सकते हैं। जैव विविधता से परिपूर्ण द्वीप में माइक्रो क्लाइमेट (सोला फॉरेस्ट) निर्मित करता है। यहां विशिष्ट प्रजाति के वृक्ष पाए जाते हैं। इसमें चिरौट (सिरहुट) के सदाबहार वृक्ष प्रमुख हैं।



शिवनाथ नदी के पानी से घिरा मदकू द्वीप आम तौर पर जंगल जैसा ही है।  शिवनाथ नदी के बहाव ने मदकू द्वीप को दो हिस्सों में बांट दिया है। एक हिस्सा लगभग 35 एकड़ में है, जो अलग-थलग हो गया है। दूसरा करीब 50 एकड़ का है, जहां 2011 में उत्खनन से पुरावशेष मिले हैं। 

नदी किनारे से पुरावशेष के मूल अकूत खजाने तक पहुंचने की पगडंडी के दोनों पेड़ों के घने झुरमुट हैं। यहां नदी से बहते पानी की कलकल आती आवाज रोमांचित करती हैं। चलते-चलते जैसे ही पुरातत्व स्थान का द्वार दिखता है, हमारी उत्सुकता भी शिवनाथ नदी की माफिक उफान पर होती है। मुख्य द्वार से अंदर पहुंचते ही दायीं तरफ पहले धूमेश्वर महादेव मंदिर और फिर श्रीराम केवट मंदिर आता है। थोड़ी दूर पर ही श्री राधा कृष्ण, श्री गणेश और श्री हनुमान के प्राचीन मंदिर भी हैं। 



 11वीं सदी के कल्चुरी कालीन पुरावैभव की कहानी बयां करते हैं। यहां उत्खनन के साक्षी रहे छत्तीसगढ़ के संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के पर्यवेक्षक प्रभात कुमार सिंह ने एक पुस्तक में वर्णन किया है, इसे मांडूक्य ऋषि की तपो स्थली के रूप में तीन दशक पहले प्रोफेसर डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर ने चिन्हित किया था। संभवत: यही पर ऋषि ने 'माण्डूक्योपनिषद्' की रचना की। संविधान में समाहित किए गए 'सत्यमेव जयते' भी इसी महाकृति के प्रथम खंड का छठवां मंत्र है।

वर्ष 1985 से यहां श्री राधा कृष्ण मंदिर परिसर में पुजारी के तौर पर काम कर रहे वीरेंद्र कुमार शुक्ला बताते हैं, पुरा मंदिरों के समूह वाला गर्भगृह पहले समतल था। जब खुदाई हुई तो वहां 19 मंदिरों के भग्नावशेष और कई प्रतिमाएं बाहर आईं। इसमें 6 शिव मंदिर, 11 स्पार्तलिंग और एक-एक मंदिर क्रमश: उमा-महेश्वर और गरुड़ारूढ़ लक्ष्मी-नारायण मंदिर मिले हैं। खुदाई के बाद वहां बिखरे पत्थरों को मिलाकर मंदिरों का रूप दिया गया। मदकू द्वीप की खुदाई में 6 शिव मंदिर, 11 स्पार्तलिंग और एक-एक उमा-महेश्वर और गरुड़ारूढ़ लक्ष्मी-नारायण मंदिर मिले। बाद में वहां पत्थरों को मिलाकर मंदिरों का रूप दिया गया।

मंदिरों के गिरने के विषय में कहते हैं कि-“आज से करीब डेढ दो सौ साल पहले शिवनाथ नदी में भयंकर बाढ आई थी। जिसका बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर था। जिससे सारे मंदिरों के पत्थर हमको दक्षिण से उत्तर की ओर ढहे हुए मिले। यह बाढ से ढहने का प्रमाण है। बाढ इतनी भयंकर थी कि टापू के उपर भी एक दो मीटर पानी बहने लगा था। बाढ से विनाश होने का प्रमाण यह भी है कि चारों तरफ़ महीन रेत (शिल्ट) जमा है। यह महीन शिल्ट सिर्फ़ पानी से ही आ सकता है। लगभग एक मीटर का शिल्ट डिपाजिट है। जो स्पष्ट दिख रहा है काली लाईन के नीचे। बाढ का पानी तेजी से आया और काफ़ी समय तक यह द्वीप पानी में डूबा रहा। अधिकांश पत्थर तो टूट-फ़ूट गए हैं। जितने भी पत्थर यहाँ उपलब्ध है उनसे पुनर्रचना हम कर दें यही हमारा प्रयास है। इन मंदिरों की नींव सलामत थी इसलिए हम उसी पर पुनर्रचना कर रहे हैं।

पांच साल में इस पुरावैभव के संरक्षण को लेकर अपेक्षित काम नहीं हो पाया। लोहे का डोम बना कर इन मंदिरों को धूप और बरसात से सुरक्षित तो कर लिया गया, लेकिन सदियों पुरानी इस विरासत की पुख्ता सार-संभाल करने वाला कोई नहीं है। क्या आधे-अधूरे साधनों से हम इस धरोहर को बचा पाएंगे।





यह सवाल इसलिए भी अहम हो चुका है, क्योंकि मुंगेली और बलौदाबाजार जिले को यहां मिलाने वाली शिवनाथ नदी के किनारों को रेत माफिया जिस तरह आसपास की जगहों को खोखला कर रहा है, वह इस मदकू द्वीप के लिए बड़ा खतरा बना हुआ है। छत्तीसगढ़ के इस 'मोहनजोदड़ो' खजाने के जमीन में छिपे अनमोल रहस्यों को बाहर लाने के लिए गहन शोध के साथ ही राजकीय संरक्षण भी जरुरी है।

1959-60 की इंडियन एपिग्राफी रिपोर्ट में मदकू द्वीप से प्राप्त दो प्राचीन शिलालेखों का उल्लेख है। पहला लगभग तीसरी सदी ईस्वी की ब्राह्मी लिपि में अंकित है। इसमें किसी अक्षय निधि का उल्लेख किया गया है। दूसरा शंखलिपि में है। दोनों भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन दक्षिण पूर्व मंडल कार्यालय विशाखापट्नम में रखे गए हैं।
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