वर्तमान परिवेश ने चरितार्थ किया है "लंका म सोन के भूति" किसी काम का नही

"लंका म सोन के भूति"
              छत्तीसगढ़ी में एक कहावत है 'लंका म सोन के भूति' अर्थात अपने गाँव शहर देश से दूर रोजगार में सोने के बराबर मजदूरी मिलना। गांव से लोग जब पलायन कर शहरो की ओर रुख करते हैं, तब वहाँ के बड़े बुजुर्ग अक्सर यह कहते हुए पलायन करने से रोकने की असफल प्रयास करते हैं की बेटा अपने जमीन अपने देश को छोड़ कर कुछ अतिरिक्त पैसो के लालच में तुम दूर जा रहे हो वहाँ  पैसे भले ही जादा कमा लोगे  लेकिन अपनों का प्यार कहा से लाओगे बेटा? गांव में भले ही रूखी सुखी मिले लेकिन यहाँ सब अपने हैं जो  सुख-दुःख में हमेशा साथ खड़े मिलेंगे। लंका (दूर स्थान) में कौन होंगे पूछने वाला?   यह सत्य भी है पलायन वर्षो से होते आया है अनेक रूपो में समय दर समय इसका रूप बदलते गया है। लेकिन ज्यादातर पलायन का मुख्य वजह रहा है आर्थिक लाभ पाना। 
            पलायन के वैसे अलग अलग प्रकार है लेकिन मैं बात करूँगा मौसमी पलायन एवं प्रतिभा पलायन पर मौसमी प्रवास- ऐसे व्यक्ति जब अपने गांव, अपने क्षेत्र के काम(खेती किसानी) को खत्मकर के एक निश्चित समय के लिए दूसरे जगह पलायन करते हैं। हमारे देश में मौसमी प्रवास सबसे ज्यादा पाया जाता है। यहाँ लोग 3-5  महीनो के लिये अपने गांव या अपने राज्य से दूसरे शहर या दूसरे राज्य पलायन करते हैं और कुछ समय पश्चात् वापस आ जाते हैं। वर्तमान समय में भारत में सबसे ज्यादा यही प्रवासी लोग सामने दिख रहें हैं। आज पूरा विश्व कोरोना नामक वायरस से लड़ रहा है जो व्यक्ति के एक दूसरे के सम्पर्क में आने से फैलने का खतरा ज्यादा बढ़ जाता है। जब प्रधानमन्त्री ने 24 मार्च को रात में घोषणा किया की अगले 21 दिनों के लिये देश भर में कर्फ्यू लगाया जाता है । जो व्यक्ति जहाँ पर है वहीं पर रहे। घरो से बाहर न निकले लोगो से न मिलें, दैनिक उपयोग के सामान के लिये एक निश्चित समय सिमा में सामान की उपलब्धता करायी जायेगी। प्रधानमन्त्री के आव्हान से सबसे ज्यादा प्रभाव इन्ही मजदुर वर्ग को पड़ा है । अचानक से पुरे देशभर में कर्फ्यू लग जाने से इनका रोजी रोटी का साधन तो बंद हुआ ही साथ ही ए लोग खाने पिने के लिये भी लालायित होने लगे। मध्यम वर्ग, उच्च वर्गो को खासा फर्क नहीं पड़ा लेकिन मजदुर वर्ग जो रोज कमाकर रोज खाने वाले परिवार हैं उनको खासा प्रभाव पड़ा।
सरकार के सभी दावे एक पल में खोखले साबित हुये जब लोग सड़को में आये और वापस पलायन कर अपने गृह स्थान जाने के लिये पैदल ही आगे बढ़ने लगे। शासन प्रशासन को समझ ही नही आ रहा था की अचानक इतनी भीड़ सड़को में कैसी इतनी सुरक्षा के बावजूद,  इतनी जागरूकता के बावजूद भी लोग भीड़ में निकल रहें हैं। उन्हें वायरस से कोई डर नहीं। हाँ इनको वायरस से या बीमारी से कोई डर नहीं, अगर डर है तो केवल भूख से जिसके लिये यह वर्ग जीते हैं , जो रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं। बचत के तरफ इनका ध्यान बहुत कम होता है। 

इसके अलावा भी एक प्रवास है जिसे हम प्रतिभा पलायन कहते हैं! 

पढ़े-लिखे या उच्च वर्गो में यह पलायन ज्यादा पाया जाता है। प्रतिभा अर्थात पेशेवर लोग जैसे की डॉक्टर, अभियन्ता, वित्तीय प्रभंधनकर्ता, वकील, व्यवसायिक व्यक्ति इत्यादि अपने देश को छोड़कर दूसरे देशो में जाकर बस जाना या प्रवासी रूप में कार्य करना ही प्रतिभा पलायन कहलाता है। एक सबसे अहम उदाहरण होगा अल्बर्ट आइंस्टीन का, जो कि एक मशहूर सिद्धांतिक भौतिक विज्ञानी रहे हैं, आइंस्टीन ने अमेरिका की ओर प्रस्थान किया था ताकि वह नाज़ी उत्पीड़न से बच सकें। सन 2000 में किए गए एक सर्वे के अनुसार लगभग 175 मिलियन लोग (दुनिया की 2.9% आबादी) अपने आवासीय देश से बाहर रहते हैं, जिनमें से 65 मिलियन लोग आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं। अंतरराष्ट्रीय प्रवास 1940 के दशक में पहली बार चिंता का कारण बना जब हजारों लाखों यूरोपीय पेशेवरों ने अपना घर छोड़कर इंग्लैंड तथा अमेरिका की ओर प्रस्थान किया। 1970 में हुए एक शोध के अनुसार W.H.O.  ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें मुख्य रूप से प्रतिभा पलायन का बहाव दर्शाया गया था, रिपोर्ट के अनुसार 90% प्रवासी 5 देशों की ओर पलायन कर रहे थे, यह देश थे – ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, इंग्लैंड, अमेरिका तथा दाता देशों में सबसे अधिक एशियाई देश थे – भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, चाइना, आदि। वर्तमान में अगर कहें की भारत में कोरोना वायरस को लाने में यही वर्ग मुखु रूप से जिम्मेदार हैं तो यह कहना गलत नहीं होगा। चीन के वुहान नामक शहर से निकलकर आज पुरे विश्व में फ़ैल गया जो मुख्य रूप से ऐसे लोगो के माध्यम से हो हमारे देश में प्रवेश किया है जो विदेशो से घूमकर वापस हमारे देश आये हैं। अब इस वायरस से बचाव के लिये पूरा देश लड़ रहा है। लोग अपने अपने घरो में बंद हैं। आखिर क्या है इसका मुख्य कारण और क्या हो सकता है इसका समाधान???

           आज सरकार के अनेक योजनाओ का वास्तविकता बयां करता है वह मजदूरो का भीड़ जो बिना किसी साधन के ही सैकड़ो किलोमीटर के सफर को पैदल ही तय करने के लिए निकल पड़े हैं। 

        न खाने का ठिकाना न कही ठहरने का खबर, बच्चे, बड़े, बुजुर्ग सभी चल पड़े हैं अपने घरो की ओर। इसके लिये जिम्मेदार हैं तो सबसे पहले हमारा शासन जिसने पूर्णरूप से कर्फ्यू लगाने से पूर्व सायद धरातल में तैयारी अधूरी ही किया। इसमें सायद ऐसा किया जा सकता था की जो व्यक्ति अपने गृह स्थान जाना चाहते हैं वह 25 मार्च तक चले जाएँ। उसके बाद सारी यातायात के साधन बंद होंगे अगले 21 दिनों तक और जो व्यक्ति जहा हैं वहीँ रुकते हैं तो शासन उनके सभी आवश्यकताओं का ख्याल रखेगी आपको किसी भी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं होगी। इससे शायद कर्फ्यू को सही दिशा मिल सकता था।

             इसके अलावा दूसरा जिम्मेदार है प्रत्येक व्यक्ति जो अपने जल जंगल जमीन अपने लोगो को  छोड़कर "लंका में सोन की भूती" के लालच में पलायन करते हैं। आज हर राज्य में शासन अपने लोगो के लिये अनेक योजनाएं संचालित कर रही है ताकि पलायन में कमी आये, अपने लोग अपने क्षेत्र में ही रहकर अपना आजीविका चला सके। लेकिन ज्यादा के चाह में लोग पलायन करने को आतुर हो जाते हैं।

          जनगणना 2011 के अनुसार हमारे देश की कुल जनसंख्या 121.02 करोड़ आंकलित की गई है जिसमें 68.84 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है और 31.16 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में निवास करती है। स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना 1951 में ग्रामीण एवं शहरी आबादी का अनुपात 83 प्रतिशत एवं 17 प्रतिशत था। 50 वर्ष बाद 2001 की जनगणना में ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या का प्रतिशत 74 एवं 26 प्रतिशत हो गया। इन आंकड़ों के देखने पर स्पष्ट होता है कि भारतीय ग्रामीण लोगों का शहरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ रहा है।

            गांवों से शहरों की ओर पलायन का सिलसिला कोई नया मसला नहीं है। गांवों में कृषि भूमि के लगातार कम होना, आबादी बढ़ने, कुटीर उद्योगों का बंद होना भूमिहीन मजदुर होना, ऋणग्रषिता होने के चलते रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों-कस्बों की ओर मुंह करना पड़ा। गांवों में बुनियादी सुविधाओं की कमी भी पलायन का एक दूसरा बड़ा कारण है। गांवों में रोजगार और शिक्षा के साथ-साथ बिजली, आवास, सड़क, संचार, स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों की तुलना में बेहद कम है। इन बुनियादी कमियों के साथ-साथ गांवों में भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के चलते शोषण और उत्पीड़न से तंग आकर भी बहुत से लोग शहरों का रुख  कर लेते हैं।
           एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर रहना और अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करना पलायन कहलाता है। लेकिन यह पलायन की प्रवृत्ति कई रूपों में देखी जा सकती है जैसे एक गांव से दूसरे गांव में, गांव से नगर, नगर से नगर और नगर से गांव। परन्तु भारत में “गांव से शहरों” की ओर पलायन की प्रवृत्ति कुछ ज्यादा है। एक तरफ जहां शहरी चकाचौंध, भागमभाग की जिन्दगी, उद्योगों, कार्यालयों तथा विभिन्न प्रतिष्ठानों में रोजगार के अवसर परिलक्षित होते हैं। शहरों में अच्छे परिवहन के साधन, शिक्षा केन्द्र, स्वास्थ्य सुविधाओं तथा अन्य सेवाओं ने भी गांव के युवकों, महिलाओं को आकर्षित किया है। वहीं गांव में पाई जाने वाली रोजगार की अनिश्चितता,  स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव ने लोगों को पलायन के लिए प्रेरित किया है।

              सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि “पंचायत संस्थाएं प्रजातंत्र की नर्सरी हैं। हमारे देश या प्रजातंत्र की विफलता के लिए सर्वप्रथम दोष नेतृत्व को दिया जाता है। पंचायतों में कार्य करते हुए पंचायत प्रतिनिधियों को स्वतः ही उत्तम प्रशिक्षण प्राप्त हो जाता है जिसका उपयोग वे भविष्य में नेतृत्व के उच्च पदों पर कर सकते हैं।”पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने एक बार कहा था कि “हमारी योजनाओं का केवल 15 प्रतिशत धन ही आम आदमी तक पहुंच पाता है।” देश के किसी गांव में दिल्ली से भेजा गया एक रुपया वहां पहुंचते-पहुंचते 15 पैसा हो जाता है। यह ऐसा क्यों होता है? वह शेष राशि 85 पैसे कहां चले जाते हैं। इसका एक ही जवाब है कि वह राशि भ्रष्टाचार रूपी मशीनरी द्वारा हजम कर ली जाती है। राजनैतिक नेतृत्व की शुरुआत पंचायत स्तर से होनी चाहिए। सरदार पटेल, पं. जवाहरलाल नेहरु, सुभाष चन्द्र बोस तथा गोविन्द बल्लभ पंत केन्द्रीय सरकार में आने से पूर्व नगरपालिकाओं के मेजर या अध्यक्ष रह चुके हैं।

              ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन रोकने और उन्हें गांव में ही रोजगार मुहैया कराने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार की ओर से विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं। भारत में ग्रामीण विकास मंत्रालय की प्रथम प्राथमिकता ग्रामीण क्षेत्र का विकास और ग्रामीण भारत से गरीबी और भूखमरी हटाना है। ग्रामीण क्षेत्रों में गांव और शहरी अन्तर कम करने, खाद्य सुरक्षा प्रदान करने और जनता को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए सामाजिक और आर्थिक आधार पर लोगों को सुदृढ़ करना जरूरी है। इसलिए सरकार की ओर से एक नई पहल की गई।

             गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन को रोकने के लिए पूर्व में अनेक प्रावधान किए हैं। सरकार की कोशिश है कि गांव के लोगों को गांव में ही रोजगार मिले। उन्हें गांव में ही शहरों जैसी आधारभूत सुविधाएं मिले। 2 फरवरी, 2006 को देश के 200 जिलों में “महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना” के लागू होने के बाद पंचायती राज व्यवस्था काफी सुदृढ़ हुई है। सबसे ज्यादा फायदा यह हुआ है कि ग्रामीणों का पलायन रुका है। लोगों को घर बैठे काम मिल रहा है और निर्धारित मजदूरी (202 रुपये वर्तमान में) भी। मजदूरों में इस बात की खुशी है कि उन्हें काम के साथ ही सम्मान भी मिला है। कार्यस्थल पर उनकी आधारभूत जरूरतों का भी ध्यान रखा गया है। उन्हें यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि “अब गांव-शहर एक साथ चलेंगे, देश हमारा आगे बढ़ेगा।

पूर्व राष्ट्रपति एवं मिसाइल मैन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम कहा करते थे कि “शहरों को गांवों में ले जाकर ही ग्रामीण पलायन पर रोक लगाई जा सकती है।” उनके इस कथन के पीछे यह कटु सत्य छिपा है कि गांवों में शहरों की तुलना में 5 प्रतिशत आधारभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। रोजगार और शिक्षा जैसी आवश्यकताओं की कमी के अलावा गांवों में बिजली, स्वच्छता, आवास, चिकित्सा, सड़क, संचार जैसी अनेक सुविधाएं या तो होती ही नहीं और यदि होती हैं तो बहुत कम। स्कूलों, कॉलेजों तथा प्राथमिक चिकित्सालयों की हालत बहुत खस्ता होती है। गांवों में बिजली पहुंचाने के अनेक प्रयासों के बावजूद नियमित रूप से बिजली उपलब्ध नहीं रहती। इस प्रकार से गांवों से पलायन के कारण और निवारण निम्न हों सकते हैं।

                       आज पूरे विश्व के साथ भारत भी इस महामारी से लड़ रहा है और निश्चित ही हम इसपर विजयी होंगे। लेकिन जब यह वक्त बीत जायेगा तो अपने पीछे छोड़ जायेगा अनेक पद चिन्ह, ऐसे पद चिन्ह जो हमे सदैव याद दिलाते रहेंगे हमारी लड़ाई को जिसे हम पूरा देशवासियो ने मिलकर लड़े होंगे। साथ ही ऐसे अनेक सवाल जिससे शायद हम आज सिख ले सके सरकारो द्वारा किया जाने वाला अनेक खोखले दावे जो आजादी के 73 वर्षो बाद भी हम पलायन को रोक नहीं पा रहे हैं। आज भी हम अपनी मुलभूत आवश्यकताओं के लिये ही अपनी रोजमर्रा को ख़त्म कर दे रहे हैं। पर्यावरण से होते खिलवाड़ जिससे वातावरण में बदलाव होना क्या हम आज के महामारी से  सिख ले सकेंगे और आने वाले समय में स्वक्षता के साथ-साथ पर्यावरण की सुंदरता को बरकरार रख सकेंगे? न जाने कितने सवाल जो कोरोना वायरस से जीत के बाद हमारे सामने होंगे अब इन सवालो से सिख लेकर अपने भविष्य को बेहतर बना पाते हैं तब ही हमारा जीत माना जायेगा। आज देश को विकसित देशों की श्रेणी में लाने के लिए गांवों में बुनियादी विकास की आवश्यकता है। गांवों में शहरों जैसी सुविधाएं उपलब्ध करानी होंगी। देश में व्याप्त विभिन्न कुरुतियों को समूल नष्ट करना होगा तथा हर जगह शिक्षा की अलख जगानी होगी। शिक्षा के माध्यम से ही ग्रामीण जनता में जनचेतना का उदय होगा तथा वे विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकेंगे। आजादी के बाद पंचायती राज व्यवस्था में सामुदायिक विकास तथा योजनाबद्ध विकास की अन्य अनेक योजनाओं के माध्यम से गांवों की हालत बेहतर बनाने और गांव वालों के लिए रोजगार के अवसर जुटाने पर ध्यान केन्द्रित किया जाता रहा है। बलवंत राय की समिति ने 73वें संविधान संशोधन के जरिए पंचायती राज संस्थाओं को अधिक मजबूत तथा अधिकार-सम्पन्न बनाने हेतु रिपोर्ट सौपी जिससे ग्रामीण विकास में पंचायतों की भूमिका काफी बढ़ गई है। पंचायतों में महिलाओं व उपेक्षित वर्गों के लिए आरक्षण से गांवों के विकास की प्रक्रिया में सभी वर्गों की हिस्सेदारी होने लगी है। इस प्रकार से गांवों में शहरों जैसी बुनियादी जरूरतें उपलब्ध करवाकर पलायन की प्रवृत्ति को सुलभ साधनों से रोका जा सकता है।


नोट:- छायाचित्र प्रतीकात्मक है एवं लिखा गया एक एक शब्द मेरे अपने विचार हैं, डेटा विकिपीडीया से लिया गया है। अगर किसी की भावनाओं को ठेस पहुचे तो क्षमा चाहूँगा।

(लेखक बलवंत सिंह खन्ना, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर से समाज कार्य विभाग के पूर्व छात्र एवं युवा सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ स्वतन्त्र लेखक व समाजिक मुद्दों के विचारक हैं।)



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अशोक सिंगारपुर भाटपारा

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